आपकी छाया में
पापा !
आपकी छाया में खुद को पनपता देखा .
उन सुदृढ हाथों के सहारे
मेरे नन्हे हाथों की
शब्दों से पहली मुलाकात
की मशक्कत करते ,
मेरे तुतलाते प्रश्नों को
समझने की कोशिश करते,
मुझे 'माँ 'संबोधित कर,हंसकर
निरुत्तर होने का अभिनय करते,
मेरी हर सफलता पर
होंठों से कुछ न कहते
पर आँखों को धीमे से मुस्कराता देखा.
कभी टूटी छत तो कभी
रिश्तों की मरम्मत करते,
जेठ की गर्मी में तपते ,
अथक दिन- रात,
कुनबे की ज़रूरत पूरी करते,
'अनहद नाद' मैंने तुम्ही में जीवंत थिरकता देखा.
मुझे 'बेटा' कहते माथे पे
शिकन धुंधली सी दिखती,
पर किसी डोली को देख
मुझे खोने का डर
उन आँखों में साफ़ उतरता देखा,
उन आँखों में साफ़ उतरता देखा,
हर विदाई पर
सफ़ेद संगमरमर सा दिखने वाला ये
मोम, कई बार पिघलता देखा .
पापा!
कुछ शब्दों में कैसे परिभाषित करूँ आपको
जिसकी हिफाज़त में खुद को पल-पल संवरता देखा.
( कविता "राजस्थान पत्रिका "में पूर्व प्रकाशित )