Thursday 3 March 2011

रास्ते पर कुछ सोचते हुए श्रेया आगे बढ़ रही थी ..."कितना काम करना पड़ता है...बाबा रे ! किसी को मेरी परवाह तक नहीं बस सबके काम करते रहो ...किसी को मेरी परवाह है क्या ?बस मैं ही पिसती रहूँ ...चक्की के पाटों की  तरह  चलती रहूँ बस घर्र ..घर्र घर्र ."सोचते- सोचते ही एक ऑटो  वाले को रुकवाया और ऑफिस की ओर की सड़क पर ऑटो के आस -पास से गुज़रते हुए मकानों ,बिल्डिंगों ,पेड़ों  को देखते हुए सोचने लगी कि ये सब गुज़र रहे हैं या वह  गुज़र रही है ? समय बीत रहा है या वह बीत रही है ? अभी तक ज़िन्दगी को जीती आ  रही है या ज़िन्दगी जैसा कुछ है ही नहीं ? "भैयाजी ज़रा जल्दी चलाओ देर हो रही है ."ऑटो वाले को देखे बिना ही उसने कहा ." पहले तो सारा काम करो फिर ऑटो के धक्के ,फिर बॉस की जी हुजूरी ,फिर घर में इनकी जी हुजूरी ...आखिर कितना करूँ मैं ?" अपने मैंपन से थोड़ा बाहर निकली तो नज़र पड़ी, दो आदमी सड़क के किनारे गुत्थम -गुत्था हो रहे है.एक दूसरे को धक्का देते हुए,टांग खींचते ओर मुंह नोचते हुए खी खी करते हंस रहे हैं "न जाने कौन सा खजाना मिल गया है दोनों को जो बावले हुए जा रहे हैं? "परंपरागत शब्द थे, श्रेया ने बचपन से अब तक कई बार  सुने थे.जब भी कहने का मौका मिलता तो वह चूकती न थी ."क्या ये ही ज़िन्दगी है बस करते रहो ,करते रहो ,करते रहो ?"सोच रही थी ."मैडम आ गया गाँधी सर्किल ." कांपती ,भरभराई दबी सी आवाज़ सुनकर श्रेया ने ऑटो वाले की ओर देखा .तकरीबन ७० से ७२साल  का बुड्ढा शरीर एक हाथ से ब्रेक दबाये ऑटो की फट -फट -फट के बीच -बीच में ज़ोरों से सांस भीतर खींचता था और धीरे से बाहर छोड़ देता था   .सलेटी रंग के  पठानी कुरते के हाथ से कोहनी बाहर झांक रही थी .टूटी -फूटी चप्पलों की बत्तियों को किन्ही जर्जर ,कंपकंपाते हाथों ने शायद खुद ही सिला था .चेहरे पर कोई भाव पदना आसान नहीं था चेहरे  की झुर्रियों के पीछे फिर भी एक संतोष का भाव ज़रूर दीखता था .श्रेया के  पिछले ३७ साल उसकी आँखों के आगे घूम  आये थे .''मैडम ज़रा जल्दी भाडा दे दीजिये ,वहां शायद कोई सवारी है."श्रेया उसे भाड़ा  देकर  बहुत कुछ पूछना चाहती थी मगर वो कहाँ सुनने वाला था उसे तो अभी बहुत काम करना था .बहुत सारा काम ....... 

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