Monday, 5 September 2011

आपकी छाया में



आपकी छाया में 

पापा !
आपकी छाया में खुद को पनपता देखा .
उन सुदृढ हाथों के सहारे 
मेरे नन्हे हाथों की 
शब्दों से पहली मुलाकात  
की मशक्कत करते ,
मेरे तुतलाते प्रश्नों को
समझने की कोशिश करते,
मुझे 'माँ 'संबोधित कर,हंसकर 
निरुत्तर होने का अभिनय करते,
मेरी हर सफलता पर 
होंठों से कुछ न कहते 
पर आँखों को धीमे से मुस्कराता देखा.

कभी टूटी छत तो कभी
रिश्तों की मरम्मत करते,
जेठ की गर्मी में तपते ,
अथक दिन- रात,
कुनबे की ज़रूरत पूरी करते,
'अनहद नाद' मैंने तुम्ही में जीवंत थिरकता देखा.

मुझे 'बेटा' कहते माथे पे 
शिकन धुंधली सी दिखती,
पर किसी डोली को देख
मुझे खोने का डर
उन आँखों में साफ़ उतरता देखा,
हर विदाई पर
सफ़ेद संगमरमर सा दिखने वाला ये 
मोम, कई बार पिघलता  देखा .

 पापा!
कुछ शब्दों में कैसे परिभाषित करूँ आपको 
जिसकी हिफाज़त में खुद को पल-पल संवरता देखा.

( कविता "राजस्थान पत्रिका "में पूर्व प्रकाशित )

5 comments:

shikha varshney said...

आपके पिता की प्रति आपकी भावनाये मुझे अभिभूत कर गईं.
सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए आभार.

Banjara said...

such a lovely image of true love...
great job......... keep writing...

manasvinee mukul said...

Thank you shikha ji or Banjaraji for your appreciation .

चन्द्र प्रकाश दुबे said...

"मुझे 'बेटा' कहते माथे पे
शिकन धुंधली सी दिखती,
पर किसी डोली को देख
मुझे खोने का डर
उन आँखों में साफ़ उतरता देखा,
हर विदाई पर
सफ़ेद संगमरमर सा दिखने वाला ये
मोम, कई बार पिघलता देखा .
एक बेटी का पिता होने के नाते इन पंक्तियों को अपने ह्रदय के काफी समीप पाया मैंने, आपके के लिखने के सार्थकता इसी से सिद्ध हो जाती है. साधुवाद.

manasvinee mukul said...

dhanyavad chandraprakashji